[टीकाकार : महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज]
ऐसी आरती राम की करहि मन ।
हरन दुख द्वन्द्व गोविन्द आनन्द घन ।।1।।
अचर चर रूप हरि सर्व गत सर्वदा,
बसत इति वासना धूप दीजै ।
दीप निज बोध गत क्रोध मद मोह तम,
प्रौढ़ अभिमान चित्तवृत्ति छीजै ।।2।।
भाव अतिसय विसद प्रवर नैवेद्य सुभ,
श्री रमन परम सन्तोषकारी ।
प्रेम ताम्बूल गत सूल संसय सकल,
विपुल भव वासना बीज हारी ।।3।।
असुभ-सुभ कर्म घृत पूर्न दस बर्त्तिका,
त्याग-पावक सतोगुन प्रकासं ।
भक्ति वैराग्य विज्ञान दीपावली,
अर्पि नीराञ्जनं जग निवासं ।।4।।
विमल हृदि भवन कृत सान्ति परजघड्ढ सुभ,
सयन विस्त्राम श्रीराम राया ।
छमा करुना प्रमुख तत्र परिचारिका,
यत्र हरि तत्र नहिं भेद माया ।।5।।
आरती निरत सनकादि स्त्रुति सेष सिव,
देवरिषि अखिल मुनि तत्त्व दरसी ।
जो करइ सो तरइ परिहरइ काम सब,
वदत इति अमल मति दास तुलसी ।।6।।
देहि सत्संग निज अंग श्री रंग,
भव भंग कारण सरन सोकहारी ।
जेतु भदघ्घ्रिपल्लव समास्त्रित सदा,
भक्तिरत विगत-संसय मुरारी ।।1।।
असुर सुर नाग नर जच्छ गन्धर्व खग,
रजनिचर सिद्ध जे चापि अन्ने।
सन्त संसर्ग त्रयवर्ग पर परमपद,
प्राप्य निःप्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।।2।।
वृत्र बलि बान प्रह्लाद मय व्याध गज,
गिद्ध द्विज बन्धु निज धर्म त्यागी।
साधु-पद-सलिल निर्धूत कल्मष सकल,
स्वपच जवनादि कैवल्य भागी।।3।।
सान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय अगुन,
सब्द ब्रह्मकै पर ब्रह्मज्ञानी।
दच्छ समदृक स्वदृक विगत अति स्व-पर-मति,
परम रति विरति तव चक्रपानी।।4।।
विस्व उपकार हित व्यग्र चित्त सर्वदा,
त्यक्त मद मन्यु कृत पुण्य रासी।
जत्र तिष्ठन्ति तत्रैव अज सर्व हरि,
सहित गच्छन्ति छीराब्धि वासी।।5।।
वेद पय-सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनिवृन्द निर्मथन कर्त्ता।
सार सत्संग-मुद्धृत्य इति निश्चितं,
वदत श्री कृष्ण वैदर्भि भर्त्ता।।6।।
सोक सन्देह भय हर्ष तम तर्ष गन,
साधु सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ सायक निसाचर चमू,
निचय निर्दलन पटु वेग भारी।।7।।
जत्र कुत्रपि मम जन्म निज कर्म बस,
भ्रमत जग जोनी संकट अनेकम्।
तत्र त्वद्भक्ति सज्जन समागम सदा,
भवतु मे राम विश्राममेकम्।।8।।
प्रबल भव जनित त्रय व्याधि भेषज भक्ति,
भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।
सन्त भगवन्त अन्तर निरंतर नहीं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।।9।।
जागु जागु जागु जीव जो है जग जामिनी।
देह गेह नेह जानि जैसे घन दामिनी।।
सोये सपने को सहइ संसृति सन्ताप रे।
बूड़ो मृग बारि खायो जेँवरी को साँप रे।।1।।
कहैं वेद बुध तू तो बूझ मन माहिँ रे।
दोष दुख सपने को जागे ही पै जाहिँ रे।।
‘तुलसी’ जागे तेँ जाइ तिहूँ ताप ताय रे।
राम नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे।।2।।
ऐसी मूढ़ता या मन की ।।
परिहरि राम भगति सुर-सरिता,
आस करत ओस कन की।।1।।
धूम समूह निरखि चातक ज्यों,
तृषित जानि मति घन की।
नहिँ तहँ सीतलता न पानि पुनि,
हानि होत लोचन की।।2।।
ज्यों गच काँच बिलोकि स्येन जड़,
छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर आहार बस,
छत बिसारि आनन की।।3।।
माधव मोह फाँस क्यों टूटै ।
बाहर कोटि उपाय करिय,
अभिअन्तर ग्रन्थि न छूटै ।।1।।
घृत पूरन कराह अन्तर्गत,
ससि प्रतिबिम्ब दिखावै ।
ईंधन अनल लगाइ कलप सत,
अवटत नास न पावै ।।2।।
तरु कोटर महँ बस विहंग,
तरु काटे मरइ न जैसे ।
साधन करिय विचारहीन,
मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ।।3।।
अन्तर मलिन विषय मन अति,
तनु पावन करिय पखारे ।
मरइ न उरग अनेक जतन,
बलमीक विविध विधि मारे ।।4।।
तुलसिदास हरि गुरु करुना बिनु,
विमल विवेक न होई ।
बिनु विवेक संसार घोर-निधि,
पार न पावइ कोई ।।5।।
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माधव असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय पचि मरिय तरिय नहिं,
जब लगि करहु न दाया।।1।।
सुनिय गुनिय समुझिय,
समझाइय दशा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोह जनित,
भव दारुण विपति सतावै।।2।।
ब्रह्म पियूष मधुर शीतल,
जो पै मन सो रस पावै।
तौं कत मृगजल रूप विषय,
कारण निसिबासर धावै।।3।।
जेहि के भवन विमल चिन्तामनि,
सो कत काँच बटोरै।
सपने परबस परइ जागि,
देखत केहि जाइ निहोरै।।4।।
ज्ञान भगति साधन अनेक सब,
सत्य झूठ कछु नाहीँ।
तुलसिदास हरिकृपा मिटइ भ्रम,
यह भरोस मन माहीं।।5।।
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अस कछु समुझि परत रघुराया ।
बिनु तव कृपा दयाल दास हित,
मोह न छूटइ माया ।।1।।
वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन,
भव पार न पावइ कोई ।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि,
तम निवृत्त नहिं होई ।।2।।
जैसे कोउ एक दीन दुखित अति,
असन बिना दुख पावै ।
चित्र कल्पतरु कामधेनु गृह,
लिखे न विपति नसावै ।।3।।
षट रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ,
दिन अरु रैन बखानै ।
बिनु बोले सन्तोष जनित सुख,
खाइ सोई पै जानै ।।4।।
जब लगि नहिं निज हृदि प्रकास,
अरु विषय आस मन माहीं ।
तुलसिदास तब लगि जग जोनि,
भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ।।5।।
मन मेरे मानहि सिख मेरी।
जौँ निज भगति चहइ हरि केरी।।1।।
उर आनहि प्रभु कृत हित जेते।
सेवहिँ ते जे अपनपौ चेते।।
दुख सुख अरु अपमान बड़ाई।
सब सम लेखहि विपति बिहाई।।2।।
सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही।
जनि तेहि लागि बिदूषहि केही।।
तुलसिदास बिनु असि मति आये।
मिलहिं न राम कपट लय लाये।।3।।
।। चौपाई ।।
रघुपति भगति सुलभ सुखकारी।
सो त्रयताप सोक भयहारी।।
बिनु सत्संग भगति नहिं होई।
ते तब मिलहिं द्रवहिँ जब सोई।।1।।
।। छन्द ।।
जब द्रवहिँ दीनदयाल राघव,
साधु संगति पाइये।
जेहि दरस परस समागमादिक,
पाप रासि नसाइये।।
जिन्ह के मिले दुख सुख समान,
अमानतादिक गुण भये।
मद मोह लोभ विषाद,
क्रोध सुबोध तेँ सहजहिँ गये।।2।।
।। चौपाई ।।
सेवत साधु द्वैत भय भागै ।
श्री रघुवीर चरन लय लागै ।।
देह जनित विकार सब त्यागै ।
तब फिरि निज सरूप अनुरागै ।।3।।
।। छन्द ।।
अनुराग सो निजरूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एकरस, तेहि हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।4।।
।। चौपाई।।
जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई ।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई ।।
जो मारग स्त्रुति साधु दिखावैं ।
तेहि मग चलत सबइ सुख पावैं ।।5।।
।। छन्द ।।
पावइ सदा सुख हरि कृपा संसार आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन बात कोटिक को कहै।।
द्विज देव गुरु हरि संत बिनु संसार पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रास हरण रमापति गाइये।।6।।
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार,
जानइ सो जेहि बनि आई ।।1।।
जो जेहि कला कुसल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख नल प्रवाह, सुरसरी बहइ गज भारी ।।2।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल तें नहिं बिलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।3।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ।।4।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।5।।
श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं, मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।1।।
परिवा प्रथम प्रेम बिनु, राम मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट हृदय निज, रहे सकल भरपूर ।।2।।
दुइज द्वैत-मत छाड़ि, चरहि महि मंडल धीर ।
विगत मोह माया मद, हृदय सदा रघुवीर ।।3।।
तीज त्रिगुन पर परम पुरुष, श्री रमन मुकुन्द ।
गुन सुभाव त्यागे बिना, दुरलभ परमानन्द ।।4।।
चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार ।
विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार ।।5।।
पाँचइ पाँच परस रस, सब्द गन्ध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ।।6।।
छठि षड़ बरग करिय जय, जनक-सुता-पति लागि ।
रघुपति कृपा-बारि बिनु, नहिं बुझाइ लोभागि ।।7।।
सातइँ सप्तधातु निरमित, तनु करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिये पर उपकार ।।8।।
आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ।।9।।
नवमी नवद्वार-पुर बसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारुन दुख दीन ।।10।।
दसइँ दसहु कर संजम, जौं न करिय जिय जानि ।
साधन वृथा होइ सब, मिलहिं न सारंगपानि ।।11।।
एकादशी एक मन, बस कैसहुँ करि जाइ ।
सो व्रत कर फल पावइ, आवागमन नसाइ ।।12।।
द्वादसि दान देहु अस, अभय होय त्रय लोक ।
परहित-निरत सुपारन, बहुरि न व्यापइ सोक ।।13।।
तेरसि तीन अवस्था, तजहु भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।14।।
चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति, अति न हरहिं जग जाल ।।15।।
पूनो प्रेम-भगति-रस, हरि रस जानहिं दास ।
सम सीतल गत-मान, ज्ञान-रत विषय-उदास ।।16।।
त्रिविध सूल होली जारिय, खेलिय अस फागु ।
जौं जिय चहसि परम सुख, तौ एहि मारग लागु ।।17।।
स्त्रुति पुरान बुद्ध सम्मत, चाँचरि चरित मुरारि ।
करि विचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ।।18।।
संसय समन दमन दुख, सुख निधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं नहिं, करिय उपाय अनेक ।।19।।
भवसागर कहँ नाव सुद्ध, सन्तन्ह के चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु, मिलहिं राम दुख हरन ।।20।।
एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।1।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो ।।2।।
ज्यों सर विमल बारि परिपूरन,
ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं सठ,
चाहत एहि विधि तृषा बुझायो ।।3।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन,
तापर दुसह दरिद्र सतायो ।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि,
विषय बबूर बाग मन लायो ।।4।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम,
मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो ।
तुलसिदास प्रभु यहि विचारि जिय,
कीजै नाथ उचित मन भायो ।।5।।